
मनोज शर्मा
FATF यानी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स का ट्रैवल रूल, जिसे रिकमेंडेशन 16 भी कहा जाता है, एक अंतरराष्ट्रीय एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग नियम है, जो वित्तीय संस्थाओं को लेन-देन की जानकारी साझा करने के लिए बाध्य करता है। यह नियम पहले पारंपरिक बैंकों के लिए बनाया गया था, लेकिन 2019 से इसे वर्चुअल एसेट सर्विस प्रोवाइडर्स (VASPs) यानी क्रिप्टो सेवा प्रदाताओं पर भी लागू कर दिया गया है। क्रिप्टो सेक्टर की तेज़ी से बढ़ती भूमिका को देखते हुए यह बदलाव ज़रूरी था, लेकिन इसे लागू करना अभी भी काफी पेचीदा है।
इस रूल को लागू करने में सबसे बड़ी अड़चन है — अलग-अलग देशों में इसका अलग-अलग तरीके से अपनाया जाना। उदाहरण के लिए, स्विट्ज़रलैंड में इसकी अनुपालन सीमा शून्य डॉलर है, जबकि अन्य देशों में यह सीमा काफी ज्यादा है। यह असमानता न सिर्फ़ वैश्विक अनुपालन में रुकावट डालती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में भी अवरोध पैदा करती है।
सिर्फ़ नियमों की असमानता ही नहीं, तकनीकी पहलू भी बड़ी चुनौती हैं। मौजूदा समय में क्रिप्टो प्लेटफ़ॉर्म अलग-अलग कंप्लायंस प्रोटोकॉल पर चलते हैं, जिससे एक प्लेटफ़ॉर्म से दूसरे पर डेटा ट्रांसफर करना कठिन हो जाता है और वैश्विक मानक के अभाव में लेन-देन करने वालों की जानकारी को पारदर्शी और सुरक्षित ढंग से साझा करना एक जटिल प्रक्रिया बन गई है।
इसके अलावा, छोटे और मझोले वर्चुअल एसेट सर्विस प्रोवाइडर्स (VASPs) के लिए कंप्लायंस टूल्स अपनाना बेहद महंगा और जटिल है। बड़ी कंपनियों के पास संसाधन होते हैं, लेकिन छोटे प्लेटफॉर्म अक्सर तकनीकी और वित्तीय रूप से पिछड़ जाते हैं। इस असमानता के चलते या तो वे नियामक कार्रवाई के शिकार बनते हैं, या फिर अंतरराष्ट्रीय क्रिप्टो इकोसिस्टम से बाहर हो जाते हैं।
इन चुनौतियों के साथ-साथ अब एक और चिंता बढ़ रही है जो है बाज़ार पर कुछ चुनिंदा बड़ी कंपनियों का नियंत्रण। कुछ बड़ी क्रिप्टो कंपनियाँ अपने निजी कंप्लायंस सिस्टम विकसित कर रही हैं, जो क्लोज्ड नेटवर्क की तरह काम करते हैं। इससे इंटरऑपरेबिलिटी यानी परस्पर जुड़ाव की क्षमता सीमित हो जाती है और धीरे-धीरे नियंत्रण कुछ ही कंपनियों के पास केंद्रित होता चला जाता है। यह प्रवृत्ति आगे चलकर एक तरह का ‘क्रिप्टो ओलिगोपॉली’ यानी एकाधिकार बना सकती है, जहाँ भारतीय कंपनियाँ केवल डेटा के लिए भुगतान करने वाली ग्राहक बनकर रह जाएँगी।
भारत को क्या करना चाहिए?
भारतीय एक्सचेंज आज विदेशी कंप्लायंस टूल्स पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं, जिससे हमारा घरेलू क्रिप्टो इकोसिस्टम बाहरी हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील बन रहा है। इससे निपटने के लिए भारत को चाहिए कि वह अपने ही ट्रैवल रूल कंप्लायंस सिस्टम का निर्माण करे। हमारे पास पहले से ही मजबूत डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) जैसे कि UPI और आधार आधारित eKYC मौजूद है। इन प्रणालियों को अगर ट्रैवल रूल अनुपालन से जोड़ा जाए, तो हम एक ऐसा समाधान तैयार कर सकते हैं जो पारदर्शी हो, सस्ता हो और जिसे देशभर में आसानी से लागू किया जा सके। इससे न केवल विदेशी निर्भरता घटेगी, बल्कि हमारा अपना डेटा भी हमारे ही नियंत्रण में रहेगा।
यदि भारत इस दिशा में सक्रियता दिखाता है, तो वह सिर्फ़ घरेलू बाजार को नहीं बचाएगा, बल्कि रेगुलेटरी टेक्नोलॉजी में एक वैश्विक अग्रणी भी बन सकता है। अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे उभरते हुए बाजारों में जहाँ FATF की निगरानी तेज़ हो रही है, भारत अपनी तकनीकी विशेषज्ञता को निर्यात कर सकता है।
अब समय आ गया है कि भारत ट्रैवल रूल को केवल एक अनुपालन का नियम न मानकर उसे एक रणनीतिक अवसर के रूप में देखे। यह न सिर्फ़ क्रिप्टो बाज़ार को मज़बूत करेगा, बल्कि भारत को अगले दौर की वैश्विक रेगुलेटरी टेक्नोलॉजी में एक अग्रणी देश भी बना सकता है।