
उमेश जोशी
हरियाणा के जाट मतदाताओं को जिस नेता पर भरोसा था, उसी ने कॉंग्रेस की नैया डुबो दी। लिहाजा, जाट मतदाता बेहद निराश हैं और उन्होंने फिलहाल कांग्रेस से किनारा कर लिया है। जाट मतदाता ठगे-से महसूस कर रहे हैं। बीजेपी को प्रदेश से रवाना करने का उनका सपना चकनाचूर हो गया।
प्रदेश में जाट मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है; इन मतदाताओं के सहारे के बिना कोई भी पार्टी अधिक समय तक चुनावी मैदान में नहीं टिक सकती इसलिए हर पार्टी इनका समर्थन पाने के लिए पुरजोर कोशिश करती है। 2024 के विधानसभा चुनाव में जाट मतदाताओं को साथ लाने के लिए कांग्रेस को कोई प्रयास नहीं करना पड़ा। किसान आंदोलन के बाद जाट मतदाताओं की पहली पसंद कॉंग्रेस हो गई थी। किसान आंदोलन के दौरान अप्रत्याशित विपदाएँ झेलने वाले जाट मतदाताओं ने यह फैसला कर लिया था कि 2024 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पटकनी देनी है। उनके इरादे पूरे होने की संभावना सिर्फ कांग्रेस में दिख रही थी इसलिए उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा। चूँकि विधानसभा चुनाव से पूर्व प्रदेश में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा दिख रहे थे इसलिए जाट मतदाताओं ने हुड्डा में भरोसा जताया और हर संभव मदद की।
कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के सबसे बड़े नेता होने के कुछ कारण थे। वे हरियाणा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे। प्रदेश के लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे इसलिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अच्छा खासा दबदबा था। वे खुद जाट हैं और हरियाणा में जाट बहुल क्षेत्रों में उनका अच्छा प्रभाव है। आलाकमान भी उनको तरजीह देता है, कारण कुछ भी हों।
जाट मतदाताओं को पूरा भरोसा था कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अगुवाई में कांग्रेस का पलड़ा भारी रहेगा; कांग्रेस चुनाव जीतेगी और की वर्षों के अंतराल के बाद फिर जाट मुख्यमंत्री बनेगा। पिछले कई वर्षों से प्रदेश में गैर जाट मुख्यमंत्री हैं और यह पीड़ा जाटों को साल रही है।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपने हठ के कारण कांग्रेस पार्टी को सत्ता से वंचित कर दिया। विधानसभा की 90 सीटों में से 72 सीटों पर टिकट भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने ही टिकट बाँटे। किसी भी नेता की एक नहीं चलने दी। कथित बड़े नेता भी एक-एक टिकट के लिए हुड्डा के निहोरे करते देखे गए; फिर भी उनके लोगों को एक भी टिकट नहीं दिया गया। जो नेता लंबे समय से टिकट की आस लगाए बैठे थे उन्हें टिकट नहीं दिया गया इसलिए वे निराश होकर या तो घर बैठ गए और चुनाव में कोई काम नहीं किया या फिर अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार को हराने में जुट गए।
हुड्डा की कृपा से जिन्हें टिकट मिला था उनमें में अधिकतर लोग चुनाव हार गए। हारने वालों का कहना है कि उनसे पैसे लेकर टिकट दिया गया है और उनके लिए चुनाव प्रचार भी नहीं किया गया। हालांकि पैसे के बदले टिकट की बात दबी जुबान में की जा रही है। अब हालात यह हैं कि जिन्हें टिकट मिला वे भी हुड्डा से नाराज है क्योंकि वे न हार का ठीकरा हुड्डा पर फोड़ रहे हैं। जिन्हें टिकट नहीं मिला, वे तो हुड्डा से नाराज हैं ही।
हुड्डा के विरोधी खेमे में कांग्रेस के तीन बड़े नेता थे जिनमें से किरण चौधरी ने पार्टी छोड़ दी थी। कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला लगभग निष्क्रिय थे। कुमारी सैलजा की भूमिका पर भी कई प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। हरियाणा के कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि कांग्रेस को सत्ता से वंचित करवाने में कुमारी सैलजा की भी भूमिका रही है। कुमारी सैलजा ने चुनाव के दौरान रूठ कर अनुसूचित जाति के मतदाताओं को कॉंग्रेस के खिलाफ वोट करने का परोक्ष संदेश दे दिया था। अनुसूचित जाति का परंपरागत वोट बैंक टूटने से कॉंग्रेस को भारी नुकसान झेलना पड़ा और इसके लिए सिर्फ कुमारी सैलजा जिम्मेदार हैं। रणदीप सुरजेवाला ने अपनी भूमिका सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र कैथल तक ही सीमित कर दी थी। उस विधानसभा क्षेत्र से उनका बेटा आदित्य सुरजेवाला चुनाव लड़ रहा था इसलिए उनका ध्येय कॉंग्रेस को जितना नहीं, सिर्फ बेटे को विधानसभा में भेजना था। इसमें कामयाब भी रहे।
इन हालात में सबसे अधिक मायूस वो मतदाता हुआ है जिनका बीजेपी से मोहभंग हो चुका था और कांग्रेस को जिताने के लिए कमर कसकर काम कर रहा था लेकिन नेताओं की आपसी गुटबाजी और हुड्डा की हठधर्मिता के कारण पार्टी का बंटाधार हुआ और पाँ साल के लिए पार्टी सत्ता से दूर हो गई। पिछले विधानसभा चुनाव में ठगे गए मतदाता अब आसानी से कॉंग्रेस के नेताओं में भरोसा नहीं कर सकते। लोकतंत्र में मतदाता ही पार्टी के स्तंभ होते हैं। लिहाजा, मतदाताओं की नाराजगी के कारण पार्टी का अस्तित्व भी डगमगा रहा है। लोकतंत्र का मनोविज्ञान यह कहता है कि एक बार धोखा खाने के बाद मतदाता दोबारा आसानी से नहीं जुड़ता।
पार्टी के लिए चिंताजनक बात यह भी है कि प्रदेश के नेताओं में आपसी कलह कम नहीं हो रहा है; आलाकमान कड़े फैसले कर पार्टी को फिर से खड़ा करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है। इन हालात में पार्टी की नैया का कोई खेवनहार नहीं है; फिलहाल बेसहारा है बेचारी।