
संजय टुटेजा
गुड्डी को हमेशा से कहानियाँ सुनना अच्छा लगता था। दादी जब पंचतंत्र की कहानियाँ सुनाती थीं, तो वह कल्पना में खुद को शेर, कबूतर या चालाक सियार के रूप में देखने लगती थी। लेकिन जब बोलने की बारी आती, तो गुड्डी चुप हो जाती। स्कूल में भी वह सबसे पीछे बैठती और मंच पर बोलने से डरती थी।
इस गर्मी की छुट्टियों में उसके स्कूल में एक विशेष बाल रंगमंच शिविर शुरू हुआ – “उड़ान”। माँ ने कहा, “गुड्डी, चलो कुछ नया सीखते हैं।” पहले दिन वह सहमी-सहमी सी गई, लेकिन जैसे ही प्रशिक्षकों ने खेल-खेल में अभ्यास शुरू किया, गुड्डी की आंखों में चमक आ गई।
वह सीखी – अपनी आवाज़ को ऊँचा-नीचा करना, चेहरे से भाव प्रकट करना, बिना बोले संवाद कहना, और सबसे ज़रूरी – मंच पर खुद पर भरोसा करना।

हर दिन गुड्डी का आत्मविश्वास बढ़ता गया। वह अब न केवल कहानियाँ सुनती थी, बल्कि उन्हें मंच पर जीती भी थी। उसने रिहर्सल के दौरान एक पेड़ की भूमिका निभाई, लेकिन उस पेड़ में भी जान डाल दी। निर्देशक बोले – “गुड्डी, तुम तो सजीव अभिनय करती हो!”
जब महोत्सव का दिन आया, गुड्डी ने अपनी प्रस्तुति दी – पूरी भावनाओं के साथ। तालियाँ बजीं, और माँ की आँखों में गर्व के आँसू थे।
उस दिन गुड्डी को समझ आया – मंच ही उसकी असली दुनिया है। अब वह न डरती है, न चुप रहती है। गुड्डी अब सपनों को अभिनय के रंगों में पंख देती है।
संदेश:
हर बच्चे में एक कलाकार छिपा होता है। सही मार्गदर्शन, आत्मविश्वास और मंच मिल जाए तो वह बच्चे का जीवन ही नहीं, समाज को भी रंगमय कर देता है।