प्रधानमंत्री मोदी बनाम विपक्ष: क्या चुनावी एजेंडा है राष्ट्रगीत की 150वीं वर्षगांठ की चर्चा?
नई दिल्ली: संसद का शीतकालीन सत्र इन दिनों राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगांठ पर हो रही बहस के कारण राजनीतिक घमासान का अखाड़ा बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बहस की शुरुआत किए जाने के बाद सत्ता पक्ष और विपक्षी दल एक-दूसरे पर इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ करने का आरोप लगा रहे हैं।
विपक्ष का स्पष्ट आरोप है कि पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए सरकार राष्ट्रगीत की इस ऐतिहासिक चर्चा को एक ‘चुनावी एजेंडा’ बनाने की कोशिश कर रही है, ताकि जनता का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता जैसे जरूरी मुद्दों से भटकाया जा सके।
🔥 प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर लगाया ‘विभाजन’ का आरोप
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में चर्चा की शुरुआत करते हुए कांग्रेस पार्टी पर तीखा हमला बोला। उन्होंने आरोप लगाया कि 1937 में फैजाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान ‘वंदे मातरम्’ के कुछ महत्वपूर्ण छंदों को जानबूझकर हटा दिया गया था। पीएम मोदी ने इसे ‘राष्ट्रगीत का विभाजन’ बताते हुए दावा किया कि इसी फैसले ने देश के विभाजन के बीज बोए और कांग्रेस ने उस समय मुस्लिम लीग के दबाव और ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ के सामने घुटने टेक दिए थे।
पीएम मोदी ने कहा, “वंदे मातरम् सिर्फ एक गीत नहीं था, बल्कि यह गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने का एक ‘महामंत्र’ था। लेकिन दुर्भाग्य से, जिन्होंने इस गीत को खंडित किया, उनकी विभाजनकारी सोच आज भी देश के लिए एक चुनौती है।” उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि ‘वंदे मातरम्’ का स्मरण देश को ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य की ओर ले जाने का एक नया संकल्प है।
🛡️ विपक्ष का पलटवार: ‘टैगोर की सलाह और एकता का फैसला’
प्रधानमंत्री के इन आरोपों पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने ज़ोरदार पलटवार किया। विपक्ष का तर्क है कि 1937 का वह फैसला महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस और मौलाना आज़ाद जैसे स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गजों की सहमति से लिया गया था।
कांग्रेस के नेताओं ने इतिहासकार और रवींद्रनाथ टैगोर की सलाह का हवाला दिया। उनका कहना है कि टैगोर ने ही सुझाव दिया था कि वंदे मातरम् के केवल पहले दो छंदों को ही अपनाया जाए, क्योंकि बाद के छंदों में कुछ धार्मिक कल्पनाएँ (जैसे देश को हिंदू देवी दुर्गा के रूप में देखना) थीं, जिससे मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों को आपत्ति हो सकती थी।
कांग्रेस ने तर्क दिया कि यह फैसला स्वतंत्रता आंदोलन में एकता बनाए रखने और सभी समुदायों की भावनाओं का सम्मान करने के लिए लिया गया था। लोकसभा में कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई ने पीएम मोदी पर ‘इतिहास को फिर से लिखने’ और जानबूझकर पंडित नेहरू की विरासत को धूमिल करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।
सपा नेता अखिलेश यादव ने भी इस बहस को ‘गैर-ज़रूरी’ करार दिया और आरोप लगाया कि जो लोग स्वतंत्रता संग्राम में शामिल नहीं थे, वे आज राष्ट्रगीत के मूल्यों पर लेक्चर दे रहे हैं।
⚖️ बंकिम चंद्र के वंशजों ने भी जताई आपत्ति
इस राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं के बीच ‘वंदे मातरम्’ के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के वंशजों ने भी सार्वजनिक रूप से बयान जारी किया। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से अपील की कि वे राष्ट्रगीत को राजनीति से ऊपर रखें और इसे चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल न करें।
एक दिलचस्प वाकया तब हुआ जब पीएम मोदी ने चर्चा के दौरान बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को अनौपचारिक रूप से ‘बंकिम दा’ कहा, जिस पर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसद सौगत रॉय ने आपत्ति जताते हुए उनसे ‘बंकिम बाबू’ कहने का अनुरोध किया, जिसे पीएम मोदी ने तुरंत स्वीकार कर लिया।
🎯 क्या है इस बहस का ‘असली’ कारण?
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भले ही यह बहस राष्ट्रगीत की 150वीं वर्षगांठ के नाम पर हो रही है, लेकिन इसके पीछे गहरी राजनीतिक मंशा है।
- बंगाल चुनाव पर नजर: अगले वर्ष पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, ‘वंदे मातरम्’ और ‘तुष्टीकरण’ जैसे मुद्दों को उठाना भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की चुनावी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि राज्य में बंगाली अस्मिता और राष्ट्रवाद की भावना को भुनाया जा सके।
- ध्यान भटकाना: विपक्ष का मुख्य आरोप है कि यह बहस केंद्र सरकार की आर्थिक मोर्चे पर विफलताओं (जैसे- बढ़ती महंगाई, रिकॉर्ड बेरोजगारी और घटता औद्योगिक उत्पादन) से देश का ध्यान हटाने के लिए की गई है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने स्पष्ट कहा कि सरकार जरूरी आर्थिक मुद्दों पर चर्चा से भाग रही है।
सारांश और आगे की राह (Conclusion)
संसद में ‘वंदे मातरम्’ पर यह गरमागरम बहस केवल इतिहास या राष्ट्रगीत के सम्मान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वर्तमान भारतीय राजनीति के दो विरोधी विचारधाराओं के टकराव को दर्शाती है: राष्ट्रवाद का प्रबल समर्थन बनाम विविधता में एकता बनाए रखने की ऐतिहासिक कोशिशें।
इस बहस ने एक बार फिर देश के सामने यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या हम अपने राष्ट्रीय प्रतीकों को दलगत राजनीति से ऊपर रख पाएंगे, या हर ऐतिहासिक अवसर को भी चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।