
चेहल्लुम, इमाम हुसैन अ.स. की शहादत के 40वें दिन मनाया जाता है। यह दिन ना सिर्फ शोक का दिन है, बल्कि एक सबक़ है — कि सच्चाई के रास्ते पर चलना मुश्किल जरूर होता है, लेकिन वही इंसानियत का रास्ता है।
वाहिद यज़दानी ने बताया कि इस दिन लोग अपने-अपने शहर की कर्बला की ज़ियारत को जाते हैं। घर-घर नज़र होती है — लंगर, सबील, शरबत, खिचड़ा और तबर्रूक तकसीम किया जाता है। आँखें नम होती हैं, मन्नतें पूरी होने पर लोग शुक्र अदा करते हैं। मजलिसों में इमाम हुसैन अ.स. के जीवन और कर्बला की हकीकत पर रोशनी डाली जाती है।
रसूलअल्लाह के घराने पर यज़ीद ने जो ज़ुल्म ढाए, वो इतने दर्दनाक हैं कि उन्हें बयान करना मुमकिन नहीं। कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन अ.स. और उनके परिवार ने जो कुर्बानी दी, वो सिर्फ इस्लाम के लिए नहीं, बल्कि इंसानियत के लिए थी।
मोहर्रम — सिर्फ शोक नहीं, सबक़ है
मोहर्रम केवल मुसलमानों के लिए नहीं है। हिन्दू, सिख, ईसाई, बौद्ध — सभी धर्मों के लोग कर्बला के ग़म में शरीक होते हैं। ताज़ियों में कंधा देते हैं, मजलिसों में हिस्सा लेते हैं और इमाम हुसैन अ.स. को सलाम करते हैं।
भारत से लेकर इराक, ईरान, पाकिस्तान, लेबनान, नाइजीरिया, अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और पूरे यूरोप तक — मोहर्रम को इंसानियत की सबसे बड़ी कुर्बानी के रूप में याद किया जाता है।
इमाम हुसैन अ.स. का पैग़ाम “अगर सामने ज़ुल्म है, तो खामोशी गुनाह है।”
इमाम हुसैन अ.स. हमें सिखाते हैं कि हक़ के लिए आवाज़ उठाना फर्ज़ है। हमें नमाज़ क़ायम करनी है, सबील और तबर्रूक तकसीम करना है, ग़रीबों, यतीमों और लाचारों की मदद करनी है।
आज ज़रूरत है कि हम इस पैग़ाम को अपने जीवन में उतारें — ज़ालिम से डरें नहीं, बल्कि हक़ और इंसाफ़ के लिए आवाज़ बुलंद करें।