
सुनील नेगी, अध्यक्ष उत्तराखंड पत्रकार मंच
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में ग्लोबल वार्मिंग और अनियंत्रित विकास ने पारिस्थितिकी संकट को गहरा कर दिया है। बादल फटने, भूस्खलन, ग्लेशियर झीलों के फटने और जंगलों की आग से सैकड़ों लोगों की जान जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में यह संकट और भयावह हो जाएगा।
गंगा का बढ़ता प्रदूषण, जंगलों की आग, वनों की कटाई और नदियों के किनारे हो रहे अवैध निर्माण सीधे तौर पर जलवायु को प्रभावित कर रहे हैं। ऋषिकेश–कर्णप्रयाग रेल लाइन और चारधाम ऑल वेदर रोड जैसी परियोजनाओं में लाखों पेड़ों की कटाई और पहाड़ों में सुरंगों के निर्माण ने भूगर्भीय असंतुलन को और बढ़ा दिया है। 2013 की केदारनाथ आपदा में 10 हजार से अधिक लोग मारे गए थे और आज भी कई गांव पुनर्वास की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हाल की धराली, थराली और किश्तवाड़ त्रासदियों में भी घर, होटल और सड़कें बह गईं। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि उत्तराखंड की 1,266 हिमनद झीलों में से 13 कभी भी फट सकती हैं, जिससे व्यापक तबाही मच सकती है। पूर्व महानिदेशक, वन मंत्रालय डॉ. वी.के. बहुगुणा का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की तीव्रता बढ़ी है। हिमालयी हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं और ढलानों की अस्थिरता भूस्खलन व अचानक बाढ़ का बड़ा कारण बन रही है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने भी गंगोत्री मार्ग पर हो रहे अवैध निर्माणों पर गंभीर चिंता जताई है और केंद्र व राज्य सरकार से जवाब तलब किया है। लेकिन दुखद पहलू यह है कि राज्य के सांसद और नेता इस मुद्दे को संसद में मजबूती से उठाने के बजाय स्वागत समारोहों और औपचारिकताओं तक सीमित हैं। पिछले वर्ष आपदाग्रस्त राज्यों के लिए केवल 315 करोड़ और इस वर्ष छह राज्यों के लिए 1066 करोड़ का आवंटन किया गया, जो नगण्य है। हकीकत यह है कि हिमालय पर मंडरा रहा यह संकट किसी एक राज्य का नहीं, बल्कि पूरे देश और विश्व के लिए चेतावनी है। केंद्र और राज्य सरकारों, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और समाज के हर वर्ग को एक मंच पर आकर ठोस नीति बनानी होगी—वरना आने वाली पीढ़ियों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।