
उमेश जोशी
राजधानी दिल्ली की सड़कों पर रोज़ाना लाखों गाड़ियाँ दौड़ती हैं, और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन, सार्वजनिक बसों की संख्या घटती जा रही है।पिछले एक दशक (2015–2025) में दिल्ली की आबादी लगभग 34 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बसें 33 प्रतिशत घट गईं।इस अवधि में दिल्ली मेट्रो में सफर करने वालों की संख्या 26 लाख से बढ़कर 57 लाख प्रतिदिन हो गई — यानी 120 प्रतिशत का इज़ाफा।
फिर भी, सवाल वही है — मेट्रो के बाद सड़क पर सफर करने वाले करोड़ों लोगों के लिए बसें कहाँ हैं?
आबादी बढ़ी, बसें घटीं
हालाँकि सन् 2011 के बाद कोई आधिकारिक जनगणना नहीं हुई है, पर अनुमान है कि 2015 में दिल्ली की आबादी 2.58 करोड़ थी, जो 2025 में बढ़कर 3.46 करोड़ हो गई है।इसी अवधि में डीटीसी की बसें 4,879 से घटकर 3,266 रह गईं।क्लस्टर बसों को जोड़ने के बाद भी कुल बस बेड़ा केवल 5,700 के आसपास है — जो 3.5 करोड़ की आबादी वाले महानगर के लिए बेहद अपर्याप्त है।
सरकार का लक्ष्य: 11,000 बसों का बेड़ा : दिल्ली सरकार ने दिसंबर 2025 तक 2,940 नई इलेक्ट्रिक बसें शामिल करने की घोषणा की है।
सरकार का लक्ष्य है कि आने वाले वर्षों में कुल बस बेड़ा 11,000 तक पहुँचे, जिनमें सभी बसें इलेक्ट्रिक होंगी।इससे प्रदूषण घटेगा और संचालन लागत भी कम होगी।इसके लिए नए बस डिपो और चार्जिंग स्टेशन बनाए जा रहे हैं।एक आधुनिक ई-बस की औसत कीमत लगभग ₹2 करोड़ है। यदि 5,000 नई बसें खरीदी जाती हैं, तो खर्च ₹10,000 करोड़ से अधिक होगा।चार्जिंग और रखरखाव लागत जोड़ें, तो कुल निवेश ₹13,000 करोड़ तक पहुँच सकता है। क्या 11,000 बसें पर्याप्त होंगी? शहरी परिवहन विशेषज्ञों के अनुसार, किसी भी बड़े शहर में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 60–80 बसें होनी चाहिए। इस मानक से देखें तो दिल्ली को लगभग 20,000 बसों की जरूरत है, जबकि मौजूदा संख्या उसका केवल एक-चौथाई है।बसों की कमी के कारण मेट्रो पर दबाव लगातार बढ़ रहा है।साल 2015–16 में जहाँ मेट्रो में दैनिक यात्रियों की संख्या 26.2 लाख थी, वहीं अब यह 57.8 लाख से अधिक है। मेट्रो ने लंबी दूरी के सफर को आसान बनाया, पर “लास्ट माइल कनेक्टिविटी” अब भी बसों और ऑटो पर निर्भर है।बस नेटवर्क कमजोर होने के कारण लोग मेट्रो तक पहुँचने या वहाँ से आगे जाने में निजी वाहनों पर निर्भर हैं — जिससे ट्रैफिक जाम और प्रदूषण दोनों बढ़ते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि बस सुधार केवल नई बसें जोड़ने से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है —ड्राइवरों व कंडक्टरों की स्थायी भर्ती,और डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम की सटीकता। साथ ही बसों की सुविधा और सुरक्षा बढ़ाने से लोग निजी वाहन छोड़कर सार्वजनिक परिवहन अपनाएँगे — जो ट्रैफिक नियंत्रण और प्रदूषण घटाने दोनों के लिए आवश्यक है lयह सच है कि मेट्रो ने दिल्ली की दिशा और छवि दोनों बदली हैं — अब यह राजधानी की “लाइफलाइन” बन चुकी है।लेकिन वास्तविकता यह भी है कि मेट्रो हर गली-मोहल्ले तक नहीं पहुँच सकती।लास्ट माइल” की यात्रा बसों से ही पूरी होती है।अगर यह कड़ी मजबूत नहीं की गई, तो आने वाले वर्षों में दिल्ली फिर जाम और धुएँ के बोझ तले दब सकती है।सरकार की नई पहल उम्मीद जगाती है — बशर्ते यह केवल घोषणा तक सीमित न रहे, बल्कि ज़मीन पर ठोस रूप में उतरे।