पांच राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में जो चुनाव के परिणाम आये हैं, उसकी गूंज आने वाले 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी दिखायी देंगे। लोकतंत्र के इस मंदिर की चौखट पर विराजमान दृश्य कुछ ऐसा है जिसमें व्यवस्था की सफाई-धुलाई के कोई आसार नहीं है। हालात किसी एक पार्टी तक ही सीमित नहीं, बल्कि सभी प्रमुख दलों में टिकटों की दावेदारी में कांग्रेस, भाजपा और इसके साथ ही कोई भी अन्य दल इनसे अछूता नहीं है। वैसे सच यह है कि व्यक्ति विशेष की छवि से कहीं ज्यादा पैसे का महत्व हावी है। टिकटों की छीना-झपटी में पैसे व प्रलोभन की भूमिका को भांपा जा सकता है। पांच राज्यों की ताजा चुनाव परिणाम शायद इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि वर्ष 2014 वाला जादू, दूसरे शब्दों में जुमला शायद अब ना चले। क्योंकि जनता अब चाय बेचने वाला मोदी, चाय पर चर्चा, आदर्श गांव, स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप इंडिया, प्रधान चौकीदार, मन की बात, शब्दों का जादू, शायद अब उसे लुभा नहीं पा रही है या वह इन शब्दों के हकीकत से रू-ब-रू हो चुकी है, जनता द्वारा किये गये वोट शायद इसी की ओर इशारा कर रहे हैं और सरकार को इससे सबक लेना चाहिए। व्यर्थ के मुद्दे, जो वादा पूरा नहीं किया जा सकता, उसे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए हथकंडों के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि एक निश्चित समय के बाद नेताओं द्वारा किये गये वायदे उनके लिए ही आफत लेकर आते हैं और स्थिति ऐसी बनती है कि उन्हें न तो उससे निगलते बनता है और न उगलते बनता है। उनकी स्थिति सांप-छूछूंदर वाली बन जाती है। एग्जिट पोल के परिणाम को धत्ता साबित करते हुए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने बीजेपी को बुरी तरह से हरा दिया है और एकतरफा बहुमत हासिल किया है। जबकि राजस्थान में कांग्रेस को जादुई आंकड़े से एक सीट कम मिला है, जितना सीट वह अनुमान लगा रही थी, उससे कम मिला है। वहीं मध्यप्रदेश में बहुमत के आंकड़ों से दो सीट कम मिला है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में तमाम नाराजगी के बावजूद बीजेपी के लिए सूपड़ा साफ जैसी स्थिति कहीं नहीं है और दोनों बड़े हिंदीभाषी राज्यों में उसने कांग्रेस को कांटे की टक्कर दी है। तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही बुरी तरह से धो डाला है। मिजोरम में कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गई है, वहां सत्ता मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के हाथों आ गयी है। आज किसान अपने फसल का दाम, जनता नोटबंदी की मार, बिजनेस करने वाले को अभी तक जीएसटी समझ नहीं आ रही है और बेरोजगार नौकरी के नाम पर हताशा में हैं। केंद्र सरकार येन-केन प्रकारेण रिजर्व बैंक के बटुए को साफ करने पर लगी हुई है और शायद यह भी कारण हो कि गवर्नर उर्जित पटेल की अंतरात्मा झकझोर रही हो और अब इतने समय तक सरकार का साथ देने के बाद उन्हें और कोई उपाय नहीं लग रहा हो जबकि उनके कार्यकाल का अब सिर्फ नौ महीना बचा हुआ था, तब उन्होंने निजी कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस्तीफे के पीछे उनका आरबीआइ की स्वायत्ता और उसके रिजर्व को सरकार को ट्रांसफर किए जाने समेत अन्य अहम मुद्दों पर सरकार के साथ टकराव चल रहा था।
केंद्र सरकार को उर्जित पटेल के इस्तीफा देने के एक दिन बाद ही आर्थिक मोर्चे पर एक और बड़ा झटका लगा है। वरिष्ठ अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने प्रधानमंत्री की इकोनॉमिस्ट एडवायजरी काउंसिल से इस्तीफा दे दिया है। भल्ला का इस्तीफा ऐसे समय में आया है जब बीते पन्द्रह महीनों में तीन अर्थशास्त्री सरकार का साथ छोड़ चुके हैं। सबसे पहले अगस्त 2017 में नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने अपना पद छोड़ा था, इसके बाद जून 2018 में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफा दिया और 10 दिसंबर को आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया।
विधानसभा चुनावों के नतीजों ने जनता के बदलते मन-मिजाज की एक झलक पेश की है। इन चुनावों को 2019 के आम चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा है, इसलिए इनके नतीजों में सभी राजनीतिक दलों के लिए कुछ न कुछ संदेश जरूर छिपा है। यह बानगी है मोदी सरकार के कामकाज की। नोटबंदी से लेकर जीएसटी जैसे मुद्दे, पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों को भी परे रखें, तो भी केंद्र सरकार के खिलाफ हिंदी पट्टी में एक आक्रोश उभरता हुआ दिख ही रहा था।
बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे के सहारे चुनाव दर चुनाव जीत रही थी, लेकिन अभी जीत का सिलसिला अचानक टूट जाना यह बताता है कि मोदी का करिश्मा चल नहीं पा रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न सिर्फ एकजुट विपक्ष की ओर से बड़ा चैलेंज मिलेगा, बल्कि उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से भी चुनौती मिल सकती है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले एक वर्ष में लगातार अपने को किसानों, आदिवासियों, दलितों और युवाओं के मुद्दे पर फोकस किया और केंद्र सरकार की नाकामियों की ओर जनता का ध्यान खींचा। पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को सीधी चुनौती देते रहे हैं। उन्होंने नोटबंदी और राफेल से लेकर बैंकों को हजारों करोड़ का चूना लगाने वाले उद्योगपतियों तक के सवाल ढंग से उठाए। संयोग ही है कि नतीजों के दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का बतौर पार्टी अध्यक्ष एक साल पूरा हुआ है। कांग्रेस के पक्ष में आए जनादेश को भविष्य के नेता के रूप में राहुल गांधी की स्वीकृति की तरह भी देखा जाएगा। कांग्रेस के साथ कभी हां कभी ना के रिश्ते में जुड़े क्षेत्रीय दलों में भी राहुल गांधी के नेतृत्व से जुड़े संशय कुछ कम हो सकते हैं।
जनता अब स्थानीय मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दे रही है। सबसे बड़ी बात यह कि हिंदीभाषी राज्यों में उसे कांग्रेस में उम्मीद नजर आ रही है। हिंदीभाषी इलाके में जनता ने केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज के प्रति नाराजगी दिखाई है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस की वापसी हो रही है। केंद्र और राज्य सरकारों ने काम करने के जो भी दावे किए, वे जमीनी स्तर पर हवाई साबित हुए। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में बीजेपी जिस हिंदुत्व के मुद्दे को उभार कर देशव्यापी माहौल बनाने में जुटी थी, उसका कुछ खास असर चुनावी राज्यों पर नहीं पड़ा। किसानों के सवाल, नौजवानों, दलितों-आदिवासियों के सवाल ज्यादा प्रभावी रहे।
कुल मिलाकर अभी तक के रुझानों में बीजेपी के लिए झटका है। देखने वाली बात यह है कि लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले आए इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर क्या असर पड़ता है। क्या पीएम मोदी अर्थव्यवस्था को लेकर कोई बड़ा फैसला करेंगे और इसके साथ ही अब वह क्या रणनीति अपनाएंगे। पांच राज्यों के परिणामों से स्पष्ट है कि अब माहौल उसके खिलाफ हो रहा है। भावनात्मक मुद्दों की हवा निकलना इन नतीजों का दूसरा संदेश है।
आम चुनावों में तीन-चार महीने का वक्त बाकी है। देखें, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता से जुड़ाव बनाने में इस समय का कैसा इस्तेमाल करते हैं। चुनाव नतीजों को मोदी सरकार के साढ़े चार साल के कामकाज पर टिप्पणी की तरह भी देखा जाएगा। मोदी चाहे कितना भी अच्छा भाषण कर लें, पर उसकी सार्थकता तभी है जब उनके दावे जमीन पर खरे उतरें। मोदी, शाह का जादू अब ढलान पर है और ऐसा हो सकता है कि मोदी, शाह के बाद नये नेतृत्व बीजेपी को कितना संभाल पायेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा? मोदी, शाह की जोड़ी जो हर कुछ को बदलने में लगी है, कहीं जनता 2019 में वोट की चोट पर मोदी, शाह को ही न बदल दें।