
सुनील नेगी
देहरादून। उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग राज्य का दर्जा आंदोलनकारी नेताओं के तैंतालीस अमूल्य बलिदानों के बाद मिला था, जिन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान गोली मार दी गई थी। 9 नवंबर 2000 को राज्य अस्तित्व में आया, इस उम्मीद के साथ कि यह एक समृद्ध, आत्मनिर्भर और सशक्त समाज का निर्माण करेगा। लेकिन राज्य के गठन के 25 साल बाद भी हालात जस के तस हैं। दस मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल के बाद भी विकास की तस्वीर धुंधली है। वर्ष 2004 में जहां राज्य का राजकोषीय घाटा 2000 करोड़ रुपये था, वहीं आज यह 70,000 करोड़ रुपये से अधिक हो चुका है। राज्य सरकार शराब नेटवर्क से हर साल लगभग 4,500 करोड़ रुपये की कमाई करती है, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में अवैध शराब तस्करी से परिवार तबाह हो रहे हैं। विकेंद्रीकृत विकास के अभाव में 30 लाख से अधिक लोगों ने राज्य छोड़ दिया है। न स्कूलों में गुणवत्ता है, न स्वास्थ्य सुविधाएँ, न रोजगार के अवसर — और अपराधी उत्तराखंड को सुरक्षित ठिकाना मानते जा रहे हैं।
चिकित्सा संसाधनों की भारी कमी के चलते गर्भवती महिलाएँ एम्बुलेंस, सड़क और डॉक्टर न मिलने के कारण रास्ते में दम तोड़ रही हैं। नवजात शिशुओं तक की जान बचाना मुश्किल हो रहा है। राज्य भू-माफियाओं, शराब माफियाओं और भ्रष्टाचारियों के शिकंजे में है। अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UKSSSC) पर पेपर लीक के गंभीर आरोप हैं। पटवारी परीक्षा के प्रश्नपत्र तक कथित तौर पर 15 लाख रुपये में बेचे गए। इसका खामियाजा बेरोज़गार युवाओं को भुगतना पड़ रहा है, जो लगातार सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
इस बीच, घाटे में डूबे राज्य की सरकार पर प्रचार-प्रसार में बेहिसाब खर्च करने के आरोप हैं। एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड सरकार ने पिछले पाँच वर्षों में छवि निर्माण और विज्ञापनों पर 1001 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। इसमें अकेले इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को ही 426 करोड़ रुपये दिए गए। यह स्थिति चौंकाने वाली है। एक ओर राज्य सत्तर हज़ार करोड़ से अधिक के घाटे और भूस्खलन जैसी आपदाओं से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर मीडिया को उपकृत करने के नाम पर अयोग्य चैनलों व संस्थानों को सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये बाँटे जा रहे हैं। 25 साल पहले बने इस राज्य से लोगों ने जो सपने देखे थे, वे आज भी अधूरे हैं। सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड कभी अपने आंदोलनकारी शहीदों के सपनों को पूरा कर पाएगा?