
राजशेखर व्यास
उज्जयिनी की गुरु परंपरा और गुरु-पूजन परंपरा विश्वविख्यात हैं। संसार की प्राचीनतम नगरियों में से एक उज्जयिनी का वैभव प्राचीन ग्रंथों में बिखरा हुआ मिलता है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम (दाऊ) के साथ न तो काशी गए, न प्रयाग – बल्कि महर्षि सांदीपनि के उज्जयिनी स्थित आश्रम में अध्ययन हेतु पहुँचे, जहाँ राज्याश्रय के बिना भी सुदामा जैसे निर्धन ब्राह्मण विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर सकते थे।
गुरु परंपरा की बात करें तो यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विश्वामित्र या वशिष्ठ जैसे महर्षि भी किसी न किसी राजदरबार या आश्रय से जुड़े रहे। प्राचीन काल में केवल महर्षि सांदीपनि ही ऐसे गुरु थे जिनके आश्रम को किसी राजा से अनुदान प्राप्त होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि उनके शिष्य सत्ता पाने के लिए नहीं, बल्कि सत्ता सौंपने के लिए तैयार होते थे।

आप संपूर्ण महाभारत में श्रीकृष्ण और बलराम की भूमिका देख सकते हैं — सत्ता के लोभी नहीं, बल्कि लोक-कल्याण के वाहक थे। इतना ही नहीं, सुदामा के गाँव से ही गांधी निकले जिन्होंने दांडी यात्रा कर नेहरू को सत्ता की सीढ़ी तक पहुँचा दिया। यह प्रसंग उज्जयिनी की गौरवशाली गुरु परंपरा का प्रमाण है, जहाँ गुरु अपने घर से अन्न और वस्त्र देकर शिष्य को शिक्षित करते थे।
उज्जयिनी में रहकर कृष्ण, बलराम और सुदामा न केवल गुरु के साथ नियमित रूप से महाकाल के दर्शन करने जाते थे, बल्कि प्रतिदिन बिल्वपत्र पर महाकाल के एक नवीन नाम से अर्चना भी करते थे। यही महाकाल सहस्रनाम और महाकाल कवच आज भी मेरी पुस्तक “जयति जय उज्जयिनी” में उपलब्ध हैं।

अल्पकाल में ही यहाँ श्रीकृष्ण ने न केवल गीता ज्ञान, बल्कि चौसठ कलाएं, अष्ट सिद्धियाँ और नव निधियाँ प्राप्त कर पूर्णावतार रूप धारण किया। परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि उज्जयिनी की यह महान गुरु परंपरा हर युग, हर काल में सतत जीवित रही — मुगल काल में भी।
मुगल काल में उज्जयिनी में एक महान तपस्वी “जदरूप” हुए, जिनसे मिलने सम्राट अकबर से लेकर जहाँगीर तक आए। इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने आईने-अकबरी में किया है, और अकबरनामा में भी इनका उल्लेख मिलता है।
जहाँगीर स्वयं अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-जहाँगीरी में लिखता है कि वह नौका में बैठ कर उज्जयिनी के जंगलों में गुरु संत जदरूप से मिलने जाता था और उनसे शांतिपूर्वक ज्ञान-चर्चा करता था। एक स्थान पर वह यहाँ तक लिखता है:
“मैं चाहता तो इस योगी तपस्वी को आगरा बुलाकर चर्चा कर सकता था, किंतु हिंदू धर्म के इस महापुरुष को कष्ट नहीं देना चाहता था – इसलिए स्वयं जाकर उनसे मिलता था।”

मुगल काल से लेकर अंग्रेज़ शासन तक उज्जयिनी की गुरु-गुरुकुल परंपरा अक्षुण्ण बनी रही। 1800 से 1900 के बीच महामहोपाध्याय सिद्धांतवागीश पंडित नारायणजी व्यास ने सात हज़ार विद्यार्थियों को अपने आश्रम एवं निवास में रखकर पंचांग निर्माण, ज्योतिष, व्याकरण आदि का शिक्षण कराया। उनके शिष्यों में देश-विदेश की महान विभूतियाँ रहीं — जिनमें लोकमान्य तिलक और पंडित मदन मोहन मालवीय तक उनके प्रशंसक थे।
उनके पुत्र पद्म भूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास भी उज्जयिनी की गुरु परंपरा को आगे बढ़ाने वाले यशस्वी व्यक्तित्व रहे। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, कालिदास समारोह, कालिदास अकादमी, सिंधिया शोध प्रतिष्ठान, विक्रम कीर्ति मंदिर जैसी संस्थाओं को नगर को समर्पित कर गुरु परंपरा को जीवित रखा।
आज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं पंडित व्यास के सुपुत्र राजशेखर व्यास, जो स्वयं 70 से अधिक ग्रंथों के लेखक, 2000 से अधिक वृत्तचित्रों और फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक हैं। दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में सेवा देने के बाद आज वे नई पीढ़ी को निःशुल्क भोजन, आवास एवं ज्योतिष शिक्षण प्रदान कर रहे हैं।
उज्जयिनी की यह गौरवशाली गुरु परंपरा द्वापर युग से आज तक सतत जीवित है।
यह बात अलग है कि आज इस महान नगरी में शिष्य कम और गुरु अधिक दिखाई देते हैं…!
(राजशेखर व्यास – प्रख्यात लेखक, चिंतक, विचारक एवं पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो)