चुनाव नतीजे सामने आने के साथ हिंदी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनना तय हो गया, जिसे हालिया दौर में एक बड़ी सियासी करवट कहा जा सकता है। विधानसभा चुनाव वाले पांच में से इन तीन राज्यों में लोगों की दिलचस्पी इसलिए अधिक थी क्योंकि इनमें भाजपा सत्ता में थी और उसका मुकाबला दूसरे राष्ट्रीय दल कांग्रेस से था। कांग्रेस ने तीनों ही राज्यों में उससे सत्ता छीन ली। हालांकि वह मिजोरम में सत्ता से बाहर हो गई और तेलंगाना में टीडीपी से गठबंधन के बावजूद टीआरएस को अपनी सत्ता कायम रखने से नहीं रोक सकी, फिर भी छग, मप्र और राजस्थान में उसके प्रदर्शन ने उसका मनोबल और साथ ही सियासी कद बढ़ाने का काम किया है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की सफलता पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व पर तो मुहर लगाने वाली है ही, राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की वापसी का साफ संकेत देने वाली भी है। यह वापसी जितना कांग्रेस के लिए बेहतर है, उतना ही राष्ट्रीय राजनीति और साथ ही हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए भी। तीन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी की राजनीतिक अहमियत बढ़ने के साथ ही कांग्रेस को एक लाभ यह भी होगा कि अब वह अपनी शर्तों पर विपक्षी एकता को आकार दे सकेगी। अभी तो वह अपनी राजनीतिक जमीन पर क्षेत्रीय दलों को काबिज होने का अवसर देती ही अधिक दिख रही थी। गठबंधन की राजनीति कुल मिलाकर मजबूरी और अवसरवाद की राजनीति है। इस राजनीति से देश का भला होने वाला नहीं।
छग, मप्र और राजस्थान के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा को यह चिंता सताना स्वाभाविक है कि कहीं ये नतीजे लोकसभा चुनावों पर असर न डालें। हालांकि लोकसभा चुनाव भिन्न् परिदृश्य में होंगे और मतदाताओं के समक्ष मुद्दे एवं उनकी प्राथमिकता भी अलग होगी, लेकिन भाजपा इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि तीन राज्यों के परिणाम कांग्रेस के साथ ही अन्य विपक्षी दलों को प्रोत्साहित करने वाले हैं। निराशाजनक नतीजों के लिए भाजपा केवल सत्ता विरोधी रुझान को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। उसे हार के मूल कारणों की गहन समीक्षा ही नहीं, उनका निवारण भी प्राथमिकता से करना होगा। उसे स्थानीय कारणों की तलाश करने के साथ ही यह भी गहराई से देखना-समझना होगा कि यदि मोदी सरकार के विकास कार्यों की पहुंच अधिक से अधिक लोगों तक हो रही है तो फिर वह उनकी संतुष्टि के रूप में क्यों नहीं झलक रही है? भाजपा को मोदी सरकार के कामकाज और रीति-नीति को लेकर हो रहे उस विमर्श की भी काट करनी होगी जिसे विपक्ष की ओर से बढ़ाया जा रहा है। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि मप्र, छग और राजस्थान में किसान कर्ज माफी के कांग्रेस के वादे ने चुनावों को एक हद तक प्रभावित करने का काम किया। कर्ज माफी की नीति न तो किसानों के हित में है और न ही राज्यों की अर्थव्यवस्था के हित में इसलिए उससे बचा ही जाना चाहिए, किंतु जब कांग्रेस समेत अन्य दल उसे ही रामबाण की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, तब फिर भाजपा को उसका कोई प्रभावी विकल्प खोजना ही होगा।