आज भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में गुरु नानक देव जी की 550वीं जयंती पर प्रकाशोत्सव मनाया जा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक हो जाता है कि सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी तथा सनातन संस्कृति की रक्षा में शहीदी देने वाले अन्य सिख गुरु साहिबान, उनके दर्शन और संदेशों पर ईमानदारी से विचार किया जाए।
वर्तमान समय में यह इसलिए भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि हाल ही में पवित्र नगरी अमृतसर आतंकवाद का शिकार हुई है। यहां के राजासांसी क्षेत्र में आतंकियों ने निरंकारी भवन पर ग्रेनेड से हमला कर दिया, जिसमें 3 निरपराधों की मौत हो गई और 20 घायल हो गए। इसके अतिरिक्त बीते डेढ़ वर्ष में आधा दर्जन से अधिक हिंदूवादी नेताओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तानी खुफिया एजैंसी आई.एस.आई. कई आतंकवादी संगठनों के साथ मिलकर पंजाब को पुन: अशांत करने का षड्यंत्र रच रही है। क्या यह सत्य नहीं कि जिस विषैले चिंतन ने अपने गर्भ से आतंकवाद या मजहबी कट्टरता को जन्म दिया है, उसका शिकार पंजाब पहले क्रूर विदेशी आक्रांताओं और फिर 1980-90 के दशक में हो चुका है?
भक्ति आंदोलन
जब मध्यकालीन भारत में बाहरी आक्रांताओं का कहर हिंदुओं पर टूट रहा था, तब उस दौर में मानवता को आत्मगौरव का पाठ पढ़ा रहे गुरु नानक देव जी (1469-1538 ई.) ने सिख पंथ की नींव रखी। उत्तर-पश्चिमी सीमांत, सिंध सहित पंजाब क्रूर मजहबी अत्याचार से सर्वाधिक प्रताडि़त था। इन क्षेत्रों में मंदिरों को तोडऩे के साथ यहां मूल निवासियों को तलवार के बल पर जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा था, जिसके प्रतिकार स्वरूप देश के अन्य भागों में भक्ति आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसी आंदोलन से कई संत देश में जनजागृति लाने में सहायक हुए और उनके संदेश को पंजाब में प्रचारित करने का भार गुरु नानक देव जी ने स्वयं संभाला।
विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत की सनातन और बहुलतावादी संस्कृति को किस प्रकार जख्मी किया जा रहा था, उसका वर्णन स्वयं गुरु नानक देव जी ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह किया है:
‘‘खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया॥
आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ॥
एती मार पई कुरलाणे तै की दरदु न आइया॥
करता तूं सभना का सोई॥
जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई॥
सकता सीहु मारे पै वगै खसमै ला पुरसाई॥
रतन विगाड़ी विगोए कुतीं मुइआ सार न काई॥’’
गुरु नानक देव जी की इन पंक्तियों में उस कालखंड में मुगलों द्वारा पंजाब ही नहीं, अपितु पूरे हिंदुस्तान पर ढहाई गई यातनाओं का वर्णन है। इस्लामी शासकों के वीभत्स अत्याचारों से अधिकांश लोग अपनी पूजा-पद्धति विस्मृत कर चुके थे। यहां तक कि उनके कोपभाजन से बचने के लिए अपनी मूल जीवनशैली और खानपान में भी सावधानी बरत रहे थे। गुरु नानक देव जी ने इस पर पहली चोट की। उन्होंने बिना किसी भय के ‘‘एकं सत्’’ की वैदिक परंपरा का संदेश दिया। भारत के मूल आध्यात्मिक मूल्यों की पुनस्र्थापना और सिख पंथ के संरक्षण में धर्म की रक्षा होते देख तत्कालीन साम्राज्यवादी शक्तियों की बौखलाहट बढ़ गई।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब का योगदान
सिख गुरुओं की परंपरा में 5वें सिख गुरु अर्जन देव जी पहले शहीद हुए, जिन्हें जहांगीर के आदेश पर बर्बरता के साथ मौत के घाट उतार दिया गया। मानवतावाद में उनका सबसे बड़ा योगदान ‘‘गुरु ग्रंथ साहिब’’ है, जिसका सर्वप्रथम संपादन उन्होंने ही किया था, जो पहली बार सितम्बर 1604 को अमृतसर के हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में स्थापित किया गया था। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोङ्क्षबद सिंह जी ने गुरु तेग बहादुर जी के 116 शबदों और 15 रागों को जोड़कर गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया।
सम्पूर्ण मानव जाति के लिए गुरु ग्रंथ साहिब एक अमूल्य आध्यात्मिक निधि है, जिसमें सामाजिक सौहार्द की अद्भुत झलक है। इसमें न केवल सिख गुरुओं की वाणी का संकलन है, अपितु देश के विभिन्न भागों, भाषाओं और जातियों में जन्मे संतों की वाणी भी सम्मिलित है। इन्हीं संतों में बेनी, परमानंद, जयदेव, रामानंद, रविदास और सूरदास के साथ कबीर, नामदेव, त्रिलोचन, सदना, धन्ना, साईं, पीपा, फरीद और भिखान शामिल हैं। मराठी, पुरानी पंजाबी, बृज, अवधी आदि अनेक बोलियों से सुशोभित गुरु ग्रंथ साहब ‘‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’’ (सरबत का भला मांगना) की भावना से ओत-प्रोत है, इसलिए इसे समस्त मानव जाति का शाश्वत और सनातन अध्यात्म का कोष कहा जा सकता है।
छठे सिख गुरु हरगोबिंद साहिब जी (1606-1644) ने मुगलिया आतंक के खिलाफ शस्त्र उठाया और सिख पराक्रमियों की एक छोटी टुकड़ी को सैन्य प्रशिक्षण दिया। परिणामस्वरूप भारी संख्या में कश्मीर घाटी के जो हिंदू और सिख इस्लाम कबूल कर चुके थे, उनमें से अधिकांश गुरु हरगोबिंद साहब जी के आह्वान पर वापस अपने धर्म में लौट आए।
तिलक व जनेऊ की रक्षा हेतु शहीदी
औरंगजेब के गद्दी पर बैठने के बाद सिखों पर पुन: आतंक शुरू हो गया। कश्मीरी हिंदुओं को इस्लाम कबूल करवाने के लिए औरंगजेब ने मुहिम छेड़ रखी थी। प्रतिकार करने पर औरंगजेब ने सबसे पहले नौवें सिख गुरु तेग बहादुर जी को इस्लाम में परिवर्तित करना चाहा। अपने धर्म का त्याग करने के बजाय उन्होंने तिलक और जनेऊ की रक्षा के लिए अपने तीन शिष्यों भाई मतिदास, सतीदास और दयालदास के साथ अपना शीश कटाना पसंद किया।
अपने निर्भीक पिता की विरासत 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी ने संभाली और उन्होंने भी धर्म की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी। 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में गुरु गोविंद सिंह जी ने ही खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कट्टर इस्लामी मानसिकता से धर्म की रक्षा करना था। उनके 4 पुत्रों में सबसे 2 छोटे बेटों (साहिबजादों)-जोरावर सिंह और फतेह सिंह को क्रूर विदेशी शासकों के आदेश पर जिंदा दीवारों में चुनवा दिया। बाद में, उनके दोनों बड़े बेटे- अजीत सिंह और जुझार सिंह भी मुगल सेना से लड़ते हुए शहीद हो गए।
बंदा बहादुर
सिख गुरुओं ने धर्म रक्षक के रूप में जो ज्योत प्रज्वलित की थी, उसे गुरु गोविंद सिंह जी के शिष्य और सिख सेनानायक बंदा सिंह बहादुर, जो गुरु घर का सेवाव्रत लेने से पहले माधो दास और लक्ष्मण दास नाम से विख्यात थे, ने उसे मशाल का रूप दिया। बंदा सिंह बहादुर जी ने 10 युद्ध लड़े, जिसमें 12 मई 1710 में चप्पड़ चिड़ी के युद्ध में उन्होंने साहिबजादों की शहादत का बदला भी लिया था। बाद में, गुरु नानक और गोविंद सिंह सिंह जी से प्रेरणा लेकर उन्होंने यमुना और सतलुज के पास लोहगढ़ में खालसा पंथ की नींव रखी। किंतु विशाल मुगलिया सेना के समक्ष उनकी शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई। 9 जून 1716 को बंदा सिंह बहादुर को अपना धर्म त्यागकर इस्लाम अपनाने से इंकार करने पर क्रूर यातना देकर मार डाला गया।
18वीं शताब्दी के समाप्त होने तक पंजाब से इस्लामी शासन का अंत हो गया और कई सिख राजघराने स्थापित हुए, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह सर्वाधिक शक्तिशाली थे। उन्होंने कश्मीर और पश्चिमोत्तर प्रांतों से इस्लामी राज को खत्म किया। सिख गुरुओं की शिक्षा और परम्पराओं का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने शासन में ब्राह्मणों को संरक्षण प्रदान किया और गौवध के लिए मृत्युदंड भी निर्धारित किया। उन्होंने ही अमृतसर में दरबार साहिब को स्वर्ण और संगमरमर से सजाया। अपनी वसीयत में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में अर्पित कर दिया। कश्मीर को अफगानियों के हाथों मुक्त कराने के बाद उन्होंने पराजित अफगानियों से सोमनाथ मंदिर के कपाट वापस करने को कहा।
औपनिवेशी षड्यंत्र के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने अपनी विचारधारा के अनुरूप इतिहास को इतना विकृत कर दिया कि आज पंजाब सहित देश की नई पीढ़ी का एक बड़ा भाग अपने गौरवमयी अतीत, परंपरा और कालजयी संस्कृति से अनभिज्ञ है। आवश्यकता आज इस बात की है कि हर भारतवासी गुरु ग्रंथ साहिब से न केवल प्रेरणा ले, बल्कि सिख गुरुओं ने जिन मान्यताओं, मर्यादाओं और जीवनशैली को अपनाया, उसका अपने जीवन में अनुसरण करने का भी प्रयास करे। भारत का कल्याण इसी में निहित है।-बलबीर पुंज