नई दिल्ली। अध्यात्म जीवन से जुडी जानकारी लेकर सत्य की खोज के माध्यम ओम उच्चारण पर अपने जीवन के अनुभवों को लेखक एवं जम्मू कश्मीर पुलिस में इंस्पेक्टर पद पर तैनात विक्रम जीत सिंह ने अपनी पुस्तक स्वर्ण युग ज्ञान का युग के माध्यम से साझा किया है। इस पुस्तक का विमोचन दिल्ली के शास्त्री भवन में भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो के अतिरिक्त महानिदेशक शम्भू चौधरी, दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक के पी मलिक, वरिष्ठ पत्रकार अशोक कुमार निर्भय, न्यूज़-24 चैनल के वरिष्ठ पत्रकार विनय कुमार, डॉ.सतीश वर्मा, संवाद सिंधी के संपादक श्रीकांत भाटिया,प्रकाशक सुबोध कुमार द्वारा पी आई बी मुख्यालय में संयुक्त रूप से किया।
इस अवसर पर अतिरिक्त महानिदेशक शम्भू चौधरी ने पुस्तक के लेखक विक्रमजीत सिंह को अपनी शुभकामनाएं देते हुए कहा कि आपकी यह पुस्तक मानव कल्याण को समर्पित है जो आने वाली पीढ़ी को ओम के उच्चारण से आगे बढ़ने और युवाओं का मंत्र उच्चारण और उनके अध्यात्म की ओर झुकाव करने में मदद करेगी।
दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक के पी मलिक ने कहा कि यह पुस्तक अध्यात्म को समर्पित है लेकिन ओम शब्द ब्रह्मांड के शाश्वत है इसलिए अगर कोई व्यक्ति इसका उच्चारण करके अपने मार्ग को प्राप्त करना चाहता है तो यह पुस्तक ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत सदुपयोगी सिद्ध होगी। विक्रमजीत सिंह को मेरी शुभकामना है कि उन्होंने पुलिस विभाग में इतनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद भी यह पुस्तक लिखने का काम किया है।
पुस्तक विमोचन के इस मौके पर अपनी पुस्तक के विषय में प्रकाश डालते हुए लेखक विक्रमजीत सिंह ने कहा कि यह किताब जिसका नाम स्वर्ण युग-ज्ञान का युग है इसके माध्यम से मेरी अभिलाषा है कि मैं जिंदगी के कई पहलुओं पर रोशनी डाल सकूं ताकि हम अपनी मूल प्रकृति पर वापस लौट सकें यह सत्य है और उसे जानकर हम एक बार फिर स्वर्णिम ज्ञान सत्य युग की स्थापना कर सकें। इसकी जानकारी भी इसलिए है क्योंकि हमने अपने जीवन को बहुत जटिल बना लिया है और अब हमें अपनी मूल प्रकृति पर लौटना होगा, ताकि हम अपने जीवन पर नियंत्रण ला सकें और परमात्मा की कृपा प्राप्त करते हुए अपने भाग्य के निर्माता बन सकें। इस किताब में अध्यात्म, तर्क और विचार के माध्यम से चेतना को समझने का प्रयास किया गया है।
विक्रमजीत सिंह ने कहा कि इस पुस्तक का उद्देश्य ओम के निरंतर उच्चारण के माध्यम से अपने भीतर उतरना है और अपनी जिंदगी के सारे पहलुओं को समझते हुए सत्य की खोज करनी है जो कि हमारी दिव्य प्रकृति है। अपने बाहरी स्वरूप से ज्यादा जुड़ाव होने के चलते हम कभी भी अपने भीतर नहीं उतर पाते और हमारा आत्म स्वरूप सदैव हमसे ओझल ही रहता है। इस कारण हम परमात्मा तत्व के अंश होते हुए भी बहुत न्यूनतम जीवन व्यतीत करते हैं और कुदरत के अधीन रहते हुए डर के माहौल में अपना जीवन जीते हैं। क्योंकि हम खुद को आत्मा न जानते हुए केवल शरीर मात्र ही समझते हैं।